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गीतेश्वर / बसन्तजीत सिंह हरचंद

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ओ,गीतेश्वर !
भूख ही भूख है,
क्षुधा ही क्षुधा है
हृदयों में किसी के हर्ष नहीं रहा है
भारत अब भारतवर्ष नहीं रहा है ।

हज़ारों एकवस्त्रधारिणी दरिद्र - सुताओं को
शोषण निर्वस्त्रा करने पर तुला है .
थर -थर काँप रहीं प्रार्थनाएं ये ,
आकुला - व्याकुला हैं .
क्या इन्हें फिर आत्मा को मारना है ,
सत्य को हारना है .
हा ! विवशताओं ने
इनका मुख सीया है ,
इनके लिए कृष्ण कह तूने क्या किया है १

ये आत्म - ग्लानी के
लाक्षाग्रह में जल रही हैं ,
झुलस प्रतिपल रही हैं .
इन सबका परन्तप


परम तप ----

जल कर राख हो गया तो
तू कहीं का न रहेगा
न इन लोगों का
न उन लोकों का
तेरा यह उदार यश
कृष्ण पड़ जाएगा .
रज में गढ़ जाएगा .

संघर्ष फिर खड़ा है
संघर्ष फिर कड़ा है.
भीष्म प्रहारों से धराशायी भारत यह
मूर्छितप्राय पड़ा है .
तुझे ओ,युद्धेश्वर !
श्रृंगारिक वंशी फेंककर
उखड़े हुए पहिये का उग्र चक्र लिए
शत्रु पर दौड़ना है .
अपनी मर्यादा को
स्वयम ही तोड़ना है
हर ओर से लड़ना है
स्वयम ही मारना है .
स्वयम ही मरना है ।.
नहीं तो तेरी इस
गीता वाली अजेतव्य मूर्ति को
कुदालों ,हथोडों और छड़ों से घिरना है
टूट कर गिरना है ।।

मेरे इस देश में
हर्ष नहीं रहा है
और यह भारत
भारतवर्ष नहीं रहा है ;
इसलिए पृथ्वी पर
कब आ रहे हो तुम
ओ,गीतेश्वर !!

(अग्निजा, १९७८)