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अनन्त दीप्ति / बसन्तजीत सिंह हरचंद

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प्रिय बन्धु !
क्या तुमने कभी
प्रेम की अनन्त दीप्ति को देखा है ?

जो तृषित अधर
किसी हृदय के बहते प्रेम - प्रपात का
शीतल आचमन कर लेते हैं ,
उनकी बड़ी - बड़ी आँखों में
सदा कृष्ण प्रभा चमकती है ,
ओठों पर चांदनी - मुसकान
और चेहरे से प्रात - किरणें
फूट - फूट पड़ती हैं
परितृप्त शान्ति की ।

इसीलिये विषाक्त घृणा
प्रत्येक दशा और दिशा में निन्द्य है ,
जबकि वैष्णवी प्रेम
स्तुत्य है
चाहे वह पशुपति
अथवा किसी पशु से ही
क्यों न किया जाए ?

बंधुवर !
कोई भी गाण्डीव- पुरुष
दुर्दम संसार को जीत नहीं सकता ,
किन्तु जब मैंने
उसकी प्रेम - प्रदीप्त आँखों में देखा ,
तो लगा कि मात्र
प्रीति ही विश्व - जयिनी हो सकती है ,
आग्नेय अणु - अस्त्र नहीं ।

बात हिंसा - अहिंसा
अथवा युद्ध - शान्ति की नहीं
प्रेम की है ,
यह एकमात्र सत्य है
कि सर्वोपरि प्रेम ही
इन अंधे अन्धकार - क्षणों में
सूर्यनेत्र हो सकता है
तथा अनन्त के परम प्रकाश को
फैला सकता है
बुझे हुए विश्व पर ।

असंख्य नक्षत्रों में जो स्थान
एकच्छत्र सूर्य का है
अध्यात्म में ब्रह्म का
और विज्ञान में ईथर का है
जीवन में वही सिंह - आसन
प्रेम का है ,
प्रेम सूर्य है
ब्रह्म है
ब्रह्मांड है ।

हे , बन्धुश्रेष्ठ !
जब भी अनंग प्रेम
आत्मा में वंशी - स्वर फूंकता है
एक चंद्रवर्णा राधा
हृदयाकाश में उदित होती है,
जिसकी कविता - नयना - छवि
मैंने उस प्रेमप्रिया में देखी है
जिसके लिए प्रीति
प्रात - जोति है
अग्नि- उष्मा है
और अनन्त दीप्ति है
उस
अनन्त- दीप की ।।

(समय की पतझड़ में , १९८२)