मृगी सरीखी लड़की / बसन्तजीत सिंह हरचंद
चौकड़ियाँ भारती आती है ,चंचल मृगी सरीखी लड़की ,
छुएँ अधर यदि ,तो जल जाएँ ,मिर्ची जैसी तीखी लड़की ।
निखरी सुषमा इतराती वह ,
यौवन मद से मदमाती वह ,
आंधी ज्यों आती-जाती वह;
जब भी उसके पथ पर निकला
यादों में आ छींकी लड़की ।
चौकड़ियाँ भरती आती है ,चंचल मृगी सरीखी लड़की ।
नटखट चलती बल खाती वह
आँखों को बांध रिझाती वह
फूलों की हंसी उडाती वह
हाथ लगे अँगुली कट जाए
तेज कटारी देखी लड़की ।
चौकड़ियाँ भरती आती है , चंचल मृगी सरीखी लड़की ।
अंगों से रस छलकाती वह ,
संकेतों में बतियाती वह ,
सब की आँखें तरसाती वह ;
मन को बुरा लगे यदि कुछ दिन
दिखे नहीं अति नीकी लड़की ।
चौकड़ियाँ भरती आती है ,चंचल मृगी सरीखी लड़की ।
बहती नदिया उत्पाती वह
संयम के बाँध ढहाती वह
अपने ऊपर इठलाती वह
जब भी उसको भूला हूँ तो
कानों में आ चीखी लड़की ।
चौकड़ियाँ भरती आती है ,चंचल मृगी सरीखी लड़की ।।
(चल, शब्द-बीज बोयें, २००६)