भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कविता-गीति / बसन्तजीत सिंह हरचंद
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:29, 12 नवम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बसन्तजीत सिंह हरचंद |संग्रह= }} {{KKCatKavit...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मन में पावन पग री !
द्युतिमय सब जग-मग री !
कविते ! है चरण-ध्वनि
तेरी नव मंद सुनी ,
मैं हूँ कुछ नहीं गुणी
डोल रहा डग -मग री !
नये -नये अर्थ सजे
सरस भाव लाज लजे ,
झनक अनुप्रास बजे
गीत उठा है जग री !
तुमने जो मुझे चुना
शब्द बुना ,छंद बुना ,
धन्य हुआ पुन:-पुन:
मेरा जीवन-जग री !!
(चल, शब्द बीज बोयें, २००६)