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बुत हो गया फिर / नंदकिशोर आचार्य
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पत्थर क्या नींद से भी ज्यादा पारदर्शी होता है कि और भी साफ दिख जाता है
उस में भी अपना सपना
तुम जिसे उकेरने लगते हो-
शिल्पी जो ठहरे !
पर क्या होता है उन टुकड़ों का
जिन्हें तुम अपने उकेरने में
पत्थर से उतार देते हो ?
और उस मूरत का जो-जैसी भी हो
तुम्हारी ही पहचान होती है
पत्थर की नहीं ?
उन में क्या सिसकता नहीं रहता होगा
पत्थर का कोई
क्षत-विक्षत सपना अपना ?
हाँ, पत्थर तो उपकरण ठहरा !
उस का अपना क्या ?
सपना क्या ?
तो क्या वे
जिन का अपना नहीं होता कुछ
उपकरण हो जाते हैं
मूरत करने को किसी और का सपना !
(1976)