भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सपना / शंख घोष

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:41, 3 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=शंख घोष }} Category:बांगला <poem> ओ पृथ्व...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: शंख घोष  » सपना

ओ पृथ्वी !
अब भी क्यों नहीं टूटती
मेरी नींद

सपनों के भीतर
ऊँचे पहाड़ों की तहों से
झरती हैं पंखुरियाँ

झरती हैं पंखुरियाँ
पहाड़ों से
और इसी बीच
जाग उठते हैं धान के खेत

जब लक्ष्मी घर आएगी
घर आएगी जब लक्ष्मी

वे आएँगे अपनी बन्दूकें और
कृपाण लिए हाथों में, ओ पृथ्वी !

अब भी क्यों नहीं टूटती
मेरी नींद ।

मूल बंगला से अनुवाद : नील कमल