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परवरदिगार जिसको भी हुस्नो-जमाल दे / सादिक़ रिज़वी
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परवरदिगार जिसको भी हुस्नो-जमाल दे
नज़रों में उस के शर्मो-हया का कमाल दे
ज़ालिम के दिल में रह्म की आदत को ढाल दे
यारब जहाँ में ज़ुल्म-ओ-सितम को ज़वाल दे
इक-बदज़बानी फितने की जड़ है जहान में
शीरीं ज़बान आती मुसीबत को टाल दे
मैनोश शैख़ जी हुए दौरे जदीद में
मालिक उसे तमीज़े हरामो-हलाल दे
औलाद राहे रास्त पे आएगी ख़ुद बख़ुद
शादी की उसके पैर में ज़ंजीर डाल दे
खाई है मात तूने ही उल्फत के खेल में
'सादिक़' ये बात जह्न से अपनी निकाल दे