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आत्मा का ओज / रमेश रंजक
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माध्यम ही रह गई है देह जीने को
....यह मजूरी चाय पीने को
रोटियों की तरह रूखे बाल
आस्तीनें हो गईं रूमाल
चन्द ज़ंजीरें—पसीने को
नसें हाथों की उभरती रोज़
बुझ रहा है आत्मा का ओज
हड्डियाँ गिरवी—महीने को