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जो ऊपर जा रहे हैं / समीर बरन नन्दी
Kavita Kosh से
याज्ञवल्क्य पैंट-कमीज़ पहनकर
ऊँचे आसन पर जा रहे है ।
जटिल समस्याएँ
प्रखर चिन्तक
उदीग्न रहता है
मेखा - मुख ।
फ़न की तरह हाथ उठाकर
जिज्ञासु को कर देते है शांत ।
कुश-वाणी
आरी सा धार ।
लाल आँखों से
देखते हैं --
हिंदी के कवि को....
तो हँस-हँस पड़ते हैं ।