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चौरासी हजार योनियों के बीच / वर्तिका नन्दा
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सहम-सहम कर जीते-जीते
अब जाने का समय आ गया।
डर रहा हमेशा
समय पर कामों के बोझ को निपटा न पाने का
या किसी रिश्ते के उधड़
या बिखर जाने का।
उम्र की सुरंग हमेशा लंबी लगी – डरों के बीच।
थके शरीर पर
यौवन कभी आया ही नहीं
पैदाइश बुढ़ापे के पालने में ही हुई थी जैसे।
डर में निकली सांसें बर्फ थीं
मन निष्क्रिय
पर ताज्जुब
मौत ने जैसे सोख लिया सारा ही डर।
सुरंग के आखिरी हिस्से से
छन कर आती है रौशनी यह
शरीर छूटेगा यहां
आत्मा उगेगी फिर कभी
तब तक
कम-से-कम, तब तक
डर तो नहीं होगा न!