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दफ़्तर के बाद-१ / रमेश रंजक
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कुछ ऐसा बाँध दिया बंसी मन
कुर्सी के दर्द ने
गुज़रे हम गाते चौराहों से
अनमने ।
जाने क्यों कई मर्तबा
किया कर चली गई
दक्खिनी हवा
टूट कर झीनी-सी अरगनी
मार गया जैसे लकवा
व्यंग्य भरे खिलखिला उठे
मुट्ठी भर जेब के चने
गुज़रे हम अनमेने