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निर्लेप ब्रह्म / नाथूराम शर्मा 'शंकर'
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तुझ में रहे सर्व संघात,
फिर भी सबसे न्यारा तू है।
उमगा ज्ञान-क्रिया का मेल, ठानी गौणिक ठेलमठेल,
खोला चेतन-जड़ का खेल, इसका कारण सारा तू है।
डपजा सारहीन संसार, आकर चार, अनेकाकार,
जिनमें जीवों के परिवार, प्रकटे पालनहारा तू है।
सब का साथी, सबसे दूर, सब में पाता है भरपूर,
कोमल, कड़े क्रूर, अक्रूर, सब का एक सहारा तू है।
जिन पै पड़े भूल के फन्द, क्या समझेंगे वे मतिमन्द,
उन को होगा परमानन्द, ‘शंकर’ जिन का प्यारा तू है।