दिन अधमरा देखने
कितनी भीड़ उतर आई
मुश्किल से साँवली सड़क की
देह नज़र आई ।
कल पर काम धकेल आज की
चिन्ता मुक्त हुई
खुली हवाओं ने सँवार दी
तबियत छुइ-मुई
दिन की बुझी शिराओं में
एक और उमर आई ।
फूट पड़े कहकहे,
चुटकुले बिखरे घुँघराले
पाँव, पंख हो गए
थकन की ज़ंजीरों वाले
गंध पसीने की पथ भर
बतियाती घर आई