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वे दिन / रमेश रंजक
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वे दिन
जो शब्दों में बँधे नहीं
चुभते हैं रोज़ सुबह-शाम
इन शापित आँखों की अनदेखी
दूरी सामीप्य की रही
चिनगी भर चेतना जगी, जाना,
डुबकी थी कितनी सतही
वे दिन
जो आँखों के रहे नहीं
रहते हैं अब आठों याम
अपने अस्तित्व के लगे प्रकरण
वे कोरे हाशिए न थे
निकले तो ख़ून के सगे निकले
रिश्ते बैसाखिए न थे
वे दिन
जो अपने से लगे नहीं
लगते हैं उजले उपनाम