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बन्धु रे ! हम-तुम / रमेश रंजक

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बन्धु रे !
हम-तुम,
घने जंगल की तरह होते
नाम भर वाले अगर
रिश्ते नहीं ढोते
बन्धु रे, हम-तुम !

फिर न रेगिस्तान होते
देह मेम ऐसे
फिर न आते द्वार पर
मेहमान हों जैसे
हड्डियों को काटती क्यों ?
                 औपचारिकता
खोखली मुस्कान की
तह में नहीं रोते
बन्धु रे, हम-तुम !

चेहरों से उड़ गई
पहचान बचपन की
अजनबी से कौन फिर
बातें करे मन की
बात करने के लिए
अख़बार की कतरन
फेंक देते हैं हवा में
जागते-सोते
बन्धु रे, हम-तुम !

दृष्टि स्नेहिल
दूसरों के वास्ते रख कर
ख़ून हो कर
हो गए नाख़ून से बदतर
कनखियों के दंश
दरके हुए आँगन की,
आड़ में काँटे नहीं बोते
बन्धु रे !
हम-तुम