भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दुःख / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:33, 26 दिसम्बर 2011 का अवतरण
जिस दिन से आए
उस दिन से
घर में यहीं पड़े हैं
दुख कितने लँगड़े हैं ?
पैसे,
ऐसे अलमारी से
फूल चुरा ले जाएँ बच्चे
जैसे फुलवारी से
दंड नहीं दे पाता
यद्यपि—
रँगे हाथ पकड़े हैं
नाम नहीं लेते जाने का
घर की लिपी-पुती बैठक से
काम ले रहे तहख़ाने का
धक्के मार निकालूँ कैसे ?
ये मुझ से तगड़े हैं