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नौ बजे का सायरन / रमेश रंजक
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यह नौ बजे का सायरन
कस गया तसमे,
कसा सारा बदन
कस गए लो पाँव के पहिए
हड्डियों का साथ लोहे से
इसे मजबूरियाँ कहिए
चार छीटें डाल कर
जूठे किए बरतन
हम हुए हाँ और ना के यंत्र
चढ़ गया हलके मुलम्मे की तरह
जनतंत्र
कुर्सियों के सामने पानी
घंटी बजा कर इंजन