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झीना आलोक / रमेश रंजक

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झूल रही
भोर की किरन
फुनगी पर शीशफूल-सी
                    खिसक गई
                   पीन वक्ष से
विरल यामिनी दुकूल-सी ।

प्रतिबिम्बित झना आलोक
चाँदी की सीढ़ियाँ उतर
फैल गया बन्द झील में
कंधों पर काँवर धर कर
जड़ता की
अर्गला खुली
काँप गई देह कूल-सी ।

छन-छन कर छन्द डाल से
अपनापन घोलने लगे
पर्वत के स्वर्ण हाशिए
बिन बानी बोलने लगे

                   मंदिर के
                  पाँव पर गिरी
पंकिल छाया बबूल-सी ।