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अन्धकार - 4 / बसन्तजीत सिंह हरचंद

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अन्धकार है
अन्धकार है
अत्याचारी अन्धकार है .

ओ , अहंकार !
एक सौ के बाद
एक अत्याचार और होने पर
अंगुलि के संकेत पर छोड़ा हुआ ,
महाकाश में ज्योतिर्मय यह सूर्य - चक्र ,
भष्टाचारी
अन्धकार का पीछा करता पूर्व में चढ़ आएगा ,
और इसे पश्चिम तक मार भगाएगा .

अन्धकार मारा - मारा लोकों में ,
भीत भागता हुआ फिरेगा
सोचेगा कि जाए वह किस कोने .

दीन - दुखी - हृदयों के नयन झरोखे,
झाँक - झांककर मौके व बेमौके ;
अन्धकार की खोज करेगा सूरज ,
नभ की गलियाँ घूम - घूमकर ;
भू का तृण -तृण चूम - चूमकर .

अहंकार ! तेरे गर्वीले सिर पर
सूर्य - चक्र चढ़ घिर आएगा ,
भय से तेरे मानस में हो उठेगा भूडोल ,
थर - थर थर्राएगा मुँह से फूटेगा न बोल ;
क्षमा - याचना करता तू निज कर जोड़ेगा ,
अपने अंधियारों पर पछताएगा
शीश झुका मन ही मन निज माथा फोड़ेगा ;
अत्युच्च अट्टालिकाsssकार
ओ , अहंकार !

तेरे अंतर का दुर्वासा
उस दिन ताज़ी किरणों की छीटों से ,
निद्रित आँखें खोलेगा ---- धो लेगा
उठकर कंधा मिला साथ हो लेगा