हतभागिनी / बसन्तजीत सिंह हरचंद
हत - भागिनी----
गा रही है गीत करती काम आंगन में ,
छेड़ दु;खों की व्यथित हत - रागिनी :
हत -भागिनी .
खड़ी आंगन की लता को दे रही पानी ,
सूख जाए न कहीं इसकी जवानी ;
इसी पर उंडेलती यह प्यार,
यही घर की है सिर्फ श्रृंगार,
मूक सूनेपन में आली;
जब चला जाता चलाने कर्म - हथौड़ा ,
सुबह इसकी वाटिका का प्रियतम माली .
सखी से करती यह रहती अकेली बात ,
समय बीता जा रहा यामिनी का ,दिन का ;
यह दिखाती इसी को दु;खों के निगुरे घात,
पेट की रोटी की इसको खा रही चिंता ;
रात चढती दिवस बनकर, दिवस बनता रात .
खुशी के यह गीत जितने अधिक है गाती ,
भूख भयदा सरक इसके निकटतम आती ;
दुखित गीतों की यह रानी ,
मथित इसकी फूटती घायल
कोकिला -सी कंठ की वाणी .
सांझ को जब काम से घर लौटता प्रियतम ,
कर्म दिन भर सतत करके थका - मांदा श्रम ;
झपट उससे लिपट जाती है ,
प्रेम उर का झट जताती है ,
दौड़ने लगती है बिन मौसम बहार,
महक उठता झोंपड़ी का सुप्त - आकुल प्यार ;
फैलता होता है झुटपुट का कुहासा , तम .
रात को सोते समय
लेट अपनी खाट पर यह सोचती----
"कहीं लतिका फूलने - फलने से पहले ,
चिलचिलाती धूप में ही सूख न जाए ;
इसे अथवा खा इसी की भूख न जाए .."
( अग्निजा ,१९७८)