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स्वप्न-कन्या / बसन्तजीत सिंह हरचंद

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निखरी
निखरी
सुषमा गर्व - भरी ,
स्वप्न - सखी
उतरी .

नयन मिला
प्यार - जता ---- प्यार से ----
वह मेरी बाँहों में झूल उठी ,
कुछ मिल गया कि दिल गया
हर्ष से फूल उठी .

मैं भी पहले ही
मुस्काते चुम्बन से परिपूर्ण खिला था ,
दौड़ गई विद्युत् इक मेरी शिराओं में
पाँखुरियों में मेरा अंतरतम खुला था ;
मुझे यूँ लगा कि
एक ही चुम्बन से जैसे हो प्रिया ने
सारा तन चूम लिया ,
रँग गये अंग - अंग
नेह के रँग में .

स्वप्न - कन्या रात भर आकाश के आँचल - तले ,
तनिक सकुचा कर रही लगती लपक मेरे गले ;
हो उठे कृतार्थ पल श्रृंगार - कविता में पले .

फिर उस
गौर सुषमा के थके अंगों पर
भीगी समीर झोंके झलने लगी ,
मुंद गईं नींद से दोनों आँखें ,
सिर रख मेरी गोद में
वह सो गई ,
प्यारे से प्यारे स्वप्न में
वह खो गई .

प्रात: होते छोड़कर
प्रीति से मुख मोड़कर ;
निर्दय दाह दे गई
हृदय आह ले गई;
सुंदर स्वप्न - सखी ..

(समय की पतझड़ में ,१९८२)