भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बन मन में / ठाकुरप्रसाद सिंह
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:21, 25 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ठाकुरप्रसाद सिंह |संग्रह=वंशी और मादल / ठाकुरप्रसाद स...)
बन मन में
मन बन में
गए और खो गए
हम पतझड़ के-से
अब फागुन के हो गए
कुचले फन-सा तन-मन
बीन बजाता फागुन
द्वार बनेंगे झूले
ताल बनेंगे आंगन
सींच बीज वे जो
पिछले दिन थे बो गए
फागुन के हो गए