तेरे वादों की बिना पर
गवाँ दिया सब कुछ,
चंद लफ़्ज़ों की ही ख़ातिर
लुटा दिया सब कुछ!
मुझको इन मदभरे बेदार सितारों की कसम,
मुझको उस शाख से टूटे हुए पत्तों की कसम,
चाँद को मैंने लुभाया था फ़क़त तेरे लिए,
फूल दामन में सजाया था फ़क़त तेरे लिए,
मैंने कब तुझसे इल्तिजा-ए-मुहोब्बत की थी?
मैंने कब तुझसे थी रखी कोई उम्मीद-ए-वफ़ा?
बस एक बुझती-जलती लौ सी ज़िंदगी अपनी,
तेरे साए में,
आँधियों से बचानी चाही…
पर तुझे वो भी गवारा न हुआ,
तू उठ के चल दिया न जाने कहाँ…
ख़ैर, अफ़सोस नहीं अपनी हालत-ए-दिल का,
मुझको डर है अगर तो बस इतना...
मेरी यादें कभी,
तुझको न ग़मज़दा कर दें,
तेरी नींदें भी खो न जाएँ कहीं,
मेरी तरह...
1996