Last modified on 8 फ़रवरी 2012, at 12:01

जीवन-धन / नाथूराम शर्मा 'शंकर'

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:01, 8 फ़रवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= नाथूराम शर्मा 'शंकर' }} {{KKCatPad}} <poem> लुट ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

लुट गयो धींग धनी धन तेरो।
मंजिल दूर सोच रथ पै चढ़ि, घर ते चलो अबेरो,
सूरज अस्त भयो मारग में, कियो न रैन बसेरो।
आधी रात भयानक बन में, तोहि नींद ने घेरो,
चपल तुरंग अचानक चौंके, स्यन्दन सर में गेरो।
सूत-पूत कीचड़ में कचरो, जीवत बचौ न चेरो,
तू अपनी पूँजी लै भागो, अटको आय लुटेरो।
छिन में छीन कमाई सारी, रीते हाथ खदेरो,
सो न रह्या अब जाहि कहत हो, ‘शंकर’ मेरो-मेरो।