Last modified on 8 फ़रवरी 2012, at 12:07

महा निद्रा / नाथूराम शर्मा 'शंकर'

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:07, 8 फ़रवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= नाथूराम शर्मा 'शंकर' }} {{KKCatPad}} <poem> अरी ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अरी उठ खेल हमारे संग।
आँखें खोल बोल अलबेली, उर उपजाय उमंग,
ऐसो खेल पसार सहेली, होय अलख लख दंग।
करि, केहरि, कपोत, काकोदर, कोकिल, कीर कुरंग,
कलश, कंज, कोदण्ड, कलाधर, कर सब को रस भंग।
सेज बिसार धरा पर पौढ़ी, उठत न एकहु अंग,
कलित कलेवर को कर डारो, क्यों बिन कोप कुढंग।
अस्त भयो बगराय ताप-तम, ‘शंकर’ मोद पतंग,
मुँद गए शोक-सरोज-कोश में, प्रेमिन के मन भ्रंग।