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वेदान्त विलास / नाथूराम शर्मा 'शंकर'

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बाँके बिहारी की बाजी बँसुरिया।
वंशी की तानें सुने सारी-सखियाँ,
साड़ी सजें धौरी, काली, सिंदुरिया।
देखे-दिखावे जिसे रास-रसिया,
फोडे़ उसी की रसीली कमुरिया।
सोबै न जागे न देखे न सपना,
प्यारी की चौथी अवस्था है तुरिया।
माया के धागे में मनके पिरोये,
न्यारा नहीं कोई माला से गुरिया।
सत्ता पंखुरियों की फूलों में फूली,
फूलों की सत्ता में पाई पखुरिया।
राजा कहाता है जो सारे ब्रज का,
ऊधो, उसे कैसे मानें मथुरिया।
टेढ़ी न भावे त्रिभंगी ललन की,
सीधी करी ‘शंकरा’-सी कुबरिया।