भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फिर एक हिलोर उठी / शमशेर बहादुर सिंह
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:30, 17 फ़रवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार = शमशेर बहादुर सिंह }} {{KKCatKavita}} <poem> फिर ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
फिर वह एक हिलोर उठी—
गाओ
वह मज़दूर किसानों के स्वर कठिन हठी !
कवि हे, उनमें अपना हृदय मिलाओ !
उनके मिट्टी के तन में है अधिक आग,
है अधिक ताप :
अपने विरह मिलन के पाप जलाओ !
काट बूर्जुआ भावों की गुमठी को—
गाओ !
अति उन्मुक्त नवीन प्राण स्वर कठिन हठी !
कवि हे, उनमें अपना हृदय मिलाओ !
सड़े पुराने अंध-कूप गीतों के
अर्थहीन हैं भाव, मूक मीतों के—
उन्हें अपरिचय का लाँछन दे बिल्कुल आज भुलाओ !
नूतन प्राण-हिलोर उठी !
तुम, वह जिस ओर उठी, उठ जाओ !
कवि हे !..