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हर की पौड़ी से (3) / संजय अलंग
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पानी रुकता नहीं पसीना भी घुल रहा है
बू कहीं नहीं
पुलिस की टुकड़ी नहीं कहीं
प्रेत नहीं घुमा रहा बाण
हिलती नहीं झोपड़ी
पूड़ी तब भी तली जा रही
चील उड़ रही है
आँगन अब नहीं है
पुल है, घाट है, भीड़ है, बीड़ी है
हिरनी आग से भयभीत नहीं है
आरती, प्रज्जवलन शीर्ष पर है