भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पावस रोज ही / सुशीला पुरी
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:50, 24 फ़रवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुशीला पुरी |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> पा...' के साथ नया पन्ना बनाया)
पावस रोज ही
भीगना
सिर्फ पावस में ही नहीं होता
उसकी बातें
भिगोती हैं
रोज ही
धरती की तरह
धानी चूनर
ओढ़ लेती हूँ मैं ।