Last modified on 25 सितम्बर 2007, at 22:54

जब दधि-मथनी टेकि अरै / सूरदास

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:54, 25 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} जब दधि-मथनी टेकि अरै ।<br> आरि करत मटुकी गहि मोह...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब दधि-मथनी टेकि अरै ।
आरि करत मटुकी गहि मोहन, वासुकि संभु डरै ॥
मंदर डरत, सिंधु पुनि काँपत, फिरि जनि मथन करै ।
प्रलय होइ जनि गहौं मथानी, प्रभु मरजाद टरै ॥
सुर अरु असुर ठाढ़ै सब चितवत, नैननि नीर ढरै ।
सूरदास मन मुग्ध जसोदा, मुख दधि-बिंदु परै ॥

जब श्यामसुन्दर दही मथनेकी मथानी पकड़कर अड़ गये, उस समय वे तो मटका पकड़कर मचल रहे थे; किंतु वासुकि नाग तथा शंकरजी डरने लगे, मन्दराचल भयभीत हो गया, समुद्र काँपने लगा कि कहीं फिर ये समुद्र-मन्थन न करने लगें । (वे मन-ही-मन प्रार्थना करने लगे-)`प्रभो! मथानी मत पकड़ो, कहीं प्रलय न हो जाय, अन्यथा सृष्टिकी मर्यादा नष्ट हो जायगी ।' सभी देवता और दैत्य खड़े-खड़े देख रहे हैं, उसके नेत्रोंमें आँसू ढुलक रहा है (कि फिर समुद्र मथना पड़ेगा) । सूरदासजी कहते हैं- (यह सब तो देवलोक में हो रहा है पर गोकुलमें दही-मन्थनके कारण) श्यामके मुख पर दहीके छींटे पड़ते हैं, (यह छटा देखकर) मैया यशोदाका मन मुग्ध हो रहा है ।