भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरा हो जाता है ठूँठ / मदन गोपाल लढ़ा

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:17, 24 मार्च 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मदन गोपाल लढ़ा |संग्रह=होना चाहता ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


बाईस लड़के
सात लड़कियां
बीच में गुरूजन
बी. ए. फाइनल की
विदाई के मौके
खिंचवाया यह ग्रुप फोटो।

वक्त की गर्द ने
फोटो के साथ
धुंधलाई स्मृतियां
मैं बताता हूँ
चाव से
एक-एक सहपाठी का नाम
याद करके
बरबस ही ठहर जाता हूँ
उस चेहरे पर आकर
जिस ताक रहा हँू मैं
फोटो में भी।
जान-बूझकर
भूलने का दिखावा करता हूँ
मगर अंदर ही अंदर
हरा हो जाता है
कोई ठूंठ
फूटने लगती है
हरी-हरी शाखाएँ।

सहसा
सिमट जाती है शाखाएँ
जब टोकती है बिटिया-
'पापा अगली फोटो दिखाओ ना!'