भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उजड़ गए रिश्ते / मदन गोपाल लढ़ा
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:31, 25 मार्च 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मदन गोपाल लढ़ा |संग्रह=होना चाहता ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
गाँव था भोजरासर
कुंभाणा में ससुराल
मणेरा में ननिहाल
कितना छतनार था
रिश्तों का वट-वृक्ष।
हवा नहीं हो सकती ये
जरूर रुदन कर रहा है
उजाड़ मरूस्थल में पसरा
रेत का अथाह समंदर
गावों के संग
उजड़ गए
कितने रिश्ते!