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क़तआत / ‘अना’ क़ासमी
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रूठना मुझसे मगर ख़ुद को सज़ा मत देना
जुल्फ़ रूख़सार से खेले तो हटा मत देना
मेरे इस जुर्म की क़िश्तों में सज़ा मत देना
बेवफ़ाई का सिला यार वफ़ा मत देना
कौन आयेगा दहकते हुए शोलों के परे
थक के सो जाऊँ तो ऐ ख़्वाब जगा मत देना
सारी दुनिया को जला देगा तिरा आग का खेल
भड़के जज़्बात को आँचल की हवा मत देना
ख़ून हो जायें न क़िस्मत की लकीरें तेरी
मैले हाथों को कभी रंगे-हिना मत देना
ओछी पलकों पे हसीं ख़्वाब सजाने वाले
मेरी आँखों से मेरी नींद उड़ा मत देना
सोच लेना कोई तावील1 मुनासिब लेकिन
इस हथेली से मिरा नाम मिटा मत देना
शब्दार्थ
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