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विरोध / विपिन चौधरी

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समय के घटते बढते क्रम में
मैं जहाँ हूँ,
वहीं से
एक लकीर खींचती हूँ
इस पार या उस पार।

जीवन की इस सटीक हिस्सेदारी में
मैं अभी से
अपना जायज हिस्सा ले,
जीना शुरू करती हूँ
कल, परसों, नरसों से नहीं
आज से
अभी से।

जहाँ मैं खड़ी हूँ
यात्रा आरम्भ करती हूँ,
वहीं से
जीवन के पक्ष में,
मृत्यु के विरोध में।

समय आ गया है,
इस शाश्वतता का
कुछ तो विरोध हो।