अपनी जुबान खोलेंगे एक दिन
ये पत्थबर भी बोलेंगे एक दिन।
शोख प्रियतमा है नदी, धारा भुजाएं हैं
आलिंगन में जिनके मीलों बहते आए हैं
रेत-रेत होकर पथरीला तन बिखर गया है
समर्पण का अल्हतड़ अध्यानय पर निखर गया है
टुकड़ा-टुकड़ा हो लेंगे एक दिन
ये पत्थकर भी बोलेंगे एक दिन।
ये माना कि ये बोलने के काबिल नहीं होते
ये पत्थकर तो हैं मगर पत्थबरदिल नहीं होते
इनके होंठों पर चुप्पी का पहरा होता है
दिखता नहीं है जो वह घाव गहरा होता है
पर हँसकर ही डोलेंगे एक दिन
ये पत्थहर भी बोलेंगे एक दिन।