भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सपनों की दुनिया में चल / राजेश श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:03, 19 मई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेश श्रीवास्तव }} {{KKCatNavgeet}} <poem> चल उठ ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चल उठ पागल मन,
सपनों की दुनिया में चल।

ऐसे अवसर मुझको चंद मिले हैं
जब भाव, शब्द। और छंद मिले हैं
तप-से निखरे तेरे बिरहा की अग्निर में जल।

जब-जब भीतर झांका खण्डिहर मिले
बाहर देखा तो बिखरते नर मिले
आंखों की बर्फ में गया सुनहरा सूरज गल।

जिन्दगी फकीर है मत अपनी कह
खारे आंखों के नीर आंखों में रह
अस्ताआचल में है सूरज, जिन्देगी रही है ढल।

अश्रुओं को शिव का गरल समझ पी जा
वक्र प्रेम-पथ है, सरल समझ जी जा
अभी बिछुड़ेंगे कितने ही दमयन्तीह और नल।