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जो गए उन्हें जाने दो / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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जो गए उन्हें जाने दो
तुम जाना ना, मत जाना.
बाकी है तुमको अब भी
वर्षा का गान सुनाना.
हैं बंद द्वार घर-घर के, अँधियारा रात का छाया
वन के अंचल में चंचल, है पवन चला अकुलाया.
बुझ गए दीप, बुझने दो, तुम अपना हाथ बढ़ाना,
वह परस तनिक रख जाना.
जब गान सुनाऊं अपना, तुम उससे ताल मिलाना.
हाथों के कंकन अपने उस सुर में जरा बिठाना.
सरिता के छल-छल जल में, ज्यों झर-झर झरती वर्षा,
तुम वैसे उन्हें बजाना.


मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल

('गीत पंचशती' में 'प्रकृति' के अन्तर्गत 74 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)