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साया दरक रहा है / प्रेम कुमार "सागर"

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आशियाँ जो खाक हो गया शमां जलाने में
कहाँ हम ठौर पाएँगे इस बेदर्द जमाने में |

नैया तो डूब जाएगी मझधार में फँसकर
पतवार गर' टूटा लहर को आजमाने में |

माली के बाग़ में बहार महफ़िल सजे कैसे
गुल ही उजड़ गया है गुलशन सजाने में |

ईमारत सी बन रही है अरमानों के खाक पर
एक साया दरक रहा है इसको बनाने में |

कोई बन गया है देखो जख्मों का जखीरा
काँटों के बीच जा बसा फूल को भुलाने में |

'सागर' तू कैद कर ले हर जाता हुआ लम्हा
जन्मों लगेंगे फिर तुझे इसको भुलाने में ||