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किंतु छलूँ क्यों अपने को फिर / अज्ञेय
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किन्तु छलूँ क्यों अपने को फिर?
दानव की छाया में अपनी हार छिपाऊँ?
मैं ही था वह, तेरी पूजा को चिर-तत्पर,
क्यों इस स्वीकृति से घबराऊँ?
मैं हूँ दलित, किन्तु जीवन आरम्भ तभी तब जाएँ छले!
इन्दु-तुल्य शोभने, तुषार-शीतले!
मेरे लिए आज तू पुंजीभूता तड़पन;
फिर भी मेरा मस्तक गौरव-उन्नत!
अथक प्रयोगों में ही बसता जीवन...
साहस को करती है हार प्रमाणित!
मम विजयी पीड़ा की व्यंजक, अरी पराजय-प्रोज्ज्वले!
इन्दु-तुल्य शोभने, तुषार-शीतले!
लाहौर किला, 15 मार्च, 1934