भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आशा के उठते स्वर पर मैं / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:46, 4 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=चिन्ता / अज्ञेय }} {{KKC...' के साथ नया पन्ना बनाया)
आशा के उठते स्वर पर मैं मौन, प्राण, रह जाऊँ!
आशा, मधु, द्वार प्रणय का-इस से आगे क्या गाऊँ?
जीवन-भर धक्के खाये, आहत भी हुए विलम्बित;
पर दीप रहे यदि जलता तो शिखा क्यों न हो कम्पित?
विश्वात्मा ही यह जाने हम सुखी हुए या असफल;
मैं कहूँ कि यदि हम हारे-वह हार बड़ी है कोमल!
कर पार समुद्र जीवन का हम पीछे लौट न देखें
बढ़ते अनन्त तक जावें इस से गुरु क्या सुख लेखें!
आशा, मधु, द्वार प्रणय का-इस से आगे क्या गाऊँ?
आशा के उठते स्वर पर मैं मौन प्राण रह जाऊँ!
1936