भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बार-बार अथ से / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:17, 8 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=इन्द्र-धनु रौंदे ह...' के साथ नया पन्ना बनाया)
आँखें देखेंगी तो आकृति अन्धकार में सोयी
कान सुनेंगे लय नि:स्वप्न में खोयी।
याद करेगा मन तो स्तम्भित चिन्तन का पल
आत्मा पकड़ेगी तो निराकार का आँचल।
बार-बार अथ से ही यह पूरा होगा जीवन
सब कुछ दे कर ही तो कह पाऊँगा : ओ धन!
ओ धन, ओ मेरे धन!
डार्टिंगटन हॉल, टॉटनेस, 18 अगस्त, 1955