भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बर्फ़ की तहों के नीचे / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:35, 9 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=महावृक्ष के नीचे / ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
बर्फ़ की तहों के बहुत नीचे से सुना मैं ने
उस ने कहा : यहीं गहरे में
अदृश्य गरमाई है
तभी सभी कुछ पिघलता जाता है
देखो न, यह मैं बहा!
मेरी भी, मेरी भी शिलित अस्ति के भीतर कहीं
तुम ने मुझे लगातार पिघलाया है।
पर यह जो गलना है
तपे धातु का उबलना है
मैं ने इसे झुलसते हुए सहा
पर कब, कहाँ कहा!
हाइडेलबर्ग, 30 जनवरी, 1976