भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सभी से मैं ने विदा ले ली / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:50, 10 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=महावृक्ष के नीचे / ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 सभी से मैं ने विदा ले ली

सभी से मैं ने विदा ले ली :
घर से, नदी के हरे कूल से,
इठलाती पगडंडी से
पीले वसन्त के फूलों से
पुल के नीचे खेलती
डाल की छायाओं के जाल से।
ब से मैं ने विदा ले ली :
एक उसी के सामने
मुँह खोला भी, पर
बोल नहीं निकले।
हम न घरों में मरते हैं न घाटों-अखियारों में
न नदी-नालों में
न झरते फूलों में
न लहराती छायाओं में
न डाल से छनती प्रकाश की सिहरनों में
इन सब से बिछुड़ते हुए हम
उनमें बस जाते हैं।
और उन में जीते रहते हैं
जैसे कि वे हम में रस जाते हैं
औ हमें सहते हैं।
एक मानव ही-हर उसमें जिस पर हमें ममता होती है
हम लगातार मरते हैं,
हर वह लगातार
हम में मरता है,
उस दोहरे मरण की पहचान को ही
कभी विदा, कभी जीवन-व्यापार
और कभी प्यार हम कहते हैं।

हाइडेलबर्ग, मई, 1976