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बाँहों में लो / अज्ञेय
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आँखें मिली रहें
मुझे बाँहों में लो
यह जो घिर आया है
घना मौन
छूटे नहीं
काँप कर जुड़ गया है
तना तार
टूटे नहीं
यह जो लहक उठा
घाम, पिया
इस से मुझे छाँहों में लो!
आँखें यों अपलक मिली रहें
पर मुझे बाँहों में लो!
नयी दिल्ली, जनवरी, 1980