भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाँहों में लो / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:16, 10 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=नदी की बाँक पर छाय...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँखें मिली रहें
मुझे बाँहों में लो
यह जो घिर आया है

घना मौन
छूटे नहीं
काँप कर जुड़ गया है

तना तार
टूटे नहीं
यह जो लहक उठा

घाम, पिया
इस से मुझे छाँहों में लो!

आँखें यों अपलक मिली रहें
पर मुझे बाँहों में लो!

नयी दिल्ली, जनवरी, 1980