भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मूर्त से / संगीता गुप्ता

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:00, 29 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संगीता गुप्ता |संग्रह=प्रतिनाद / ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मूर्त से
अमूर्त की ओर
न जाने कब
शुरू हो गयी यात्रा

पथ चलते
कोई कहाँ जान पाता है कि
वह कहाँ पहुँचेगा
कब पहुँचेगा
और कैसे पहुँचेगा
या कभी कहीं पहुँच भी पायेगा
या बस यूँही चलता चलेगा

चलते - चलते
कहीं पहुँचने का आभास तो
तब होता है
जब कोई बाँह थाम ले
अनायास और पूछे कि
अरे मुझ तक कैसे आ पहुँचे