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आसपास घिरी भीड़ / संगीता गुप्ता

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आसपास घिरी भीड़
न जाने कब
छँट गयी
पथ बाहर नहीं
अन्दर की ओर
मुड़ चला
अपना ही हाथ
हाथ में ले
चल पड़ी
गहरे और गहरे
अपना साथ
भाने लगा
सच के उजाले में
सब साफ़
देख रहीं आँखें
बीते कल से
षिकायत नहीं
आते कल से
अपेक्षाएँ भी नहीं
भरोसा है कि
आज सिर्फ़ मेरा है