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वही है धरा वही है अम्बर / गुलाब खंडेलवाल
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वही है धरा वही है अम्बर
वही चाँद सूरज तारे हैं केवल मैं न कहीं पर
मन चेतन शक्ति अमर है
जड़ भी जिसका रूपांतर है
पर मेरी अस्मिता किधर है
जो थी इसमें भास्वर
रहे न कोई अब चिंता-भय
सारे मोह-शोक भी हों लय
किन्तु मुझे तो नाम-रूपमय
जीवन ही था प्रियतर
यदि मेरी सत्ता न बची है
तूने क्यों यह सृष्टि रची है ?
मुझसे भी पूछा कि जँची है
मुक्ति भुक्ति से बढ़ कर