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चिर तृषित कंठ से तृप्त-विधुर / जयशंकर प्रसाद

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चिर संचित कंठ से तृप्त-विधुर
वह कौन अकिंचन अति आतुर
अत्यंत तिरस्कृत अर्थ सदृश
ध्वनि कम्पित करता बार-बार,
धीरे से वह उठता पुकार -
मुझको न मिला रे कभी प्यार .
           सागर लहरों सा आलिंगन
           निष्फल उठकर गिरता प्रतिदिन
           जल विह्व है सीमा-विहीन