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अहल्या के प्रति / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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किस सपने में तुमने लम्बी दिवा-रात्रि काट दी ?
अहल्ये ! शिला-रूप में मिट्टी में मिली हुई
उस तापस-विहीन उस शून्य छाया में कैसे रहीं
जिसकी हवन-शिखाएं निर्वाषित हो चुकी थीं ?

वृहत पृथ्वी के साथ तुम एक देह होकर विलीन थीं .
उस समय उस महा स्नेह को तुमने समझा था क्या?
पाषाण के नीचे
क्या कोई स्फुट चेतना भी शेष थी ?

जीवधात्री माता की जो बड़ी वेदना है,
मात्रिधैर्य में जो नीरव सुख और दुःख है
सोई हुई आत्मा के भीतर
क्या स्वप्न के समान उनका अनुभव किया था?

दिन-रात लाखों-करोड़ों प्राणियों के मिलन और कलह--
आनंद और विषाद के व्यग्र क्रन्दन और गर्जन,
असंख्य पथिकों की क्षण-क्षण उठने वाली पद-चाप,
ये क्या शाप-निद्रा को भेद कर
तुम्हारी श्रुतियों में प्रवेश करते थे,
नेत्रहीन,मूढ़ एवं जड़ अर्धचेतना की स्थिति में
तुम्हें जगाए रहते थे ?
महाजननी की नित्य निद्राहीन व्यथा को
अपने मन से क्या तुम जान सकी थीं ?
नवीन वासन्ती वायु के बहने पर
पृथ्वी के सर्वांग में उठने वाला पुलक-प्रवाह
क्या तुम्हारा भी स्पर्श करता था ?

मरु के दिग्विजय के हेतु जब जीवानोत्साह
सहस्र मार्गों से,सहस्र रूपों में,वेग से छूटता होगा
तब वह अनुर्वर अभिशाप को मेटने के लिये
क्षुब्ध होकर तुम्हारे पाषाण को घेर लेता होगा.
तो क्या उस आघात से
तुम्हारी देह में जीवन का कम्प जागता था ?

मानव गृह में जब रात्रि का आगमन होता,
पृथ्वी श्रांत देहों को अपने ह्रदय से लगा लेती;
दुःख एयर क्लांति भूलकर असंख्य जीव निद्रित हो जाते;
केवल आकाश जगता रहता;
उनके अंग और सुषुप्ति के निःश्वास
पृथ्वी के ह्रदय को विभोर कर देते;
मात्री-अंग में निहित
करोड़ों जीवों के उस स्पर्श-सुख में से कुछ को
क्या तुमने अपने भीतर पाया था ?