(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
हे छलनामयी !
विचित्र माया-जाल से
तुमने अपनी सृष्टि के पथ को आकीर्ण कर रखा है.
सरल जीवन पर
तुमने,निपुण हाथों से,
मिथ्या विश्वासों का जाल बिछा रखा है.
इसी प्रवंचना में तुमने अपने महत्त्व की मुहर लगाई है.
अन्वेषी के लिये तुमने रहस्य की रात नहीं रखी .
तुम्हारे ज्योतिर्मय नक्षत्र
उसे जो राह दिखाते हैं,
वह तो उसी के ह्रदय की राह है.
यह राह सदा ही स्वच्छ है.
अपने सहज विश्वास के द्वारा
वह उसे और भी उज्ज्वल बना लेता है.
बाहर से देखने परयह राह भले ही कुटिल हो,
भीतर से वह ऋजु है.
और यही इसकी महिमा है.
लोग समझते हैं वह छला गया है.
सत्य तो उसे
अपने ही आलोक से घुले अन्तःकरण में मिल जाता है.
धोखा उसे किसी भी चीज से नहीं हो सकता.
जीवन का अंतिम पुरस्कार
वह अपने भंडार में ले जाता है.
सहज भाव से
जो तुम्हारी माया हो झेल लेता है,
तुम्हारे हाथों उसे
शांति का अक्षय अधिकार प्राप्त हो जाता है.
३० जुलाई १९४१